अंतरराष्ट्रीय व्यापार में द्विपक्षीय सौदों के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्राओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ऐसी मुद्राएं कठोर मुद्रा( Hard currency )की श्रेणी में आती हैं ।
कठोर मुद्राओं से आशय ऐसी मुद्रा से है जिसे क्रय कर किसी देश द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्तर के भुगतान में उपयोग किया जाता है ऐसी मुद्राएं कठिनाई से प्राप्त की जाती हैं।
2 उस देश का करंट अकाउंट सर प्लस उसके जीडीपी का 2% या उससे ज्यादा हो और
डॉलर उसी मुद्रा में से एक है यानी कठोर मुद्रा है जिसे अंतरराष्ट्रीय भुगतान के लिए प्रत्येक देश द्वारा अपने पास रखना होता है ।
बात करते हैं करेंसी मैनिपुलेशन की यानी मौद्रिक हेरफेर की
इसके अंतर्गत किसी देश के केंद्रीय बैंक द्वारा कृत्रिम तरीके से अपने देश की मुद्रा का अवमूल्यन कर दिया जाता है जिससे विदेशी विनिमय बाजार में डॉलर की कमी दिखाकर अपने देश के निर्यात को बढ़ाया जा सके।
किसी देश द्वारा अपने मुद्रा के अवमूल्यन के पीछे एक कारण होता है निर्यात को प्रोत्साहन देना और आयात को हतोत्साहित करना ।
इसे ऐसे समझते हैं
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा विनिमय बाजार में यदि आरबीआई यानी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया भारत का केंद्रीय बैंक रुपया को डॉलर की तुलना में कम कर देता है तो भारत की वस्तु जो अमेरिका में बेची जाती है यानी जिनका निर्यात अमेरिका में किया जाता है उन वस्तुओं को क्रय करने के लिए अमेरिकी लोगों को कम पैसे डॉलर में देने पड़ते हैं। इसीलिए वह वस्तुओं के क्रय की मात्रा बढ़ा देते हैं जिससे भारत का निर्यात बढ़ जाता है दूसरे अर्थ में भारतीय वस्तुएं उनके लिए सस्ती हो जाती हैं।
इसके विपरीत अमेरिका से कोई वस्तु जब भारत आया की जाती है तो उस वस्तु को भारतीय लोगों को खरीदने के लिए ज्यादा रुपया देना पड़ता है क्योंकि रुपए का मूल्य आरबीआई के द्वारा अंतरराष्ट्रीय विनिमय मुद्रा बाजार में कम कर दिया जाता है अर्थात अमेरिकी वस्तुएं जो भारतीय लोगों के द्वारा खरीदी जाती हैं वह महंगी पड़ती हैं जिससे भारतीय उन वस्तुओं को कम मात्रा में खरीदते हैं इस प्रकार आयात को हतोत्साहित किया जाता है।
अब चलते हैं करेंसी मैनिपुलेटर के तरफ जिसके श्रेणी में भारत को अमेरिका द्वारा रखा गया है या अमेरिकी सरकार के ट्रेजरी डिपार्टमेंट द्वारा दिया जाने वाला एक लेबल है जिसका प्रयोग अमेरिका अपने व्यापारिक देशों पर करता है उसे ऐसा लगता है कि किसी देश द्वारा अपनी मुद्रा का अंतरराष्ट्रीय विनिमय मूल्य जानबूझकरकम कर दिया गया है जिसका लाभ उस देश को डॉलर की तुलना में ज्यादा होता है और अमेरिकी निर्यात घट जाता है।
इसमें उस देश के एक वित्तीय वर्ष के व्यापार अधिशेष जुड़ी थी और विदेशी मुद्रा भंडार को शामिल किया जाता है।
निर्धारित मापदंड
*1 अमेरिका के साथ व्यापार करने वाले देश का ट्रेड सरप्लस 20 अरब डॉलर या उससे अधिक हो दूसरे शब्दों में उस देश का निर्यात आयात की तुलना में अधिक हो जो 20 अरब डॉलर या उससे ज्यादा हो .
2 उस देश का करंट अकाउंट सर प्लस उसके जीडीपी का 2% या उससे ज्यादा हो और
3 उस देश के द्वारा विदेशी मुद्रा भंडार की खरीद की मात्रा जीडीपी के 2% या उससे ज्यादा हो।
उपरोक्त मापदंडों में से किसी दो मापदंड को पूरा करने पर वह देश करेंसी मैनिपुलेटर की श्रेणी में आता आ जाता है
करेंसी मैनिपुलेटर की श्रेणी में आने पर उस देश पर तात्कालिक कार्यवाही नहीं की जाती है लेकिन अंतरराष्ट्रीय व्यापार में उसकी छबि कम होती है और आने वाले दिनों में डॉलर को प्राप्त करना उस देश के लिए कठिन होता है यानी डॉलर में खरीद मुश्किल होने से उस देश की मुद्रा मजबूत हो जाती है ।इसका निर्यात पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है
भारत को इस श्रेणी में रखने के कारण
☺भारत का ट्रेड सरप्लस 20 अरब $ से ज्यादा है
☺विदेशी मुद्रा भंडार की खरीद 2 प्रतिशत से ज्यादा है
सुझाव
अमेरिकी हस्तक्षेप से बचने और अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए विदेशी मुद्रा भंडार के रूप में डॉलर के जगह अन्य अंतरराष्ट्रीय मुद्रा का संचय करना चाहिए ।
साथ ही भारत का अंतरराष्ट्रीय व्यापार यूरोप और अन्य एशियाई देशों के साथ यूरो और स्थानीय मुद्राओं में करना चाहिए इसके अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर अमेरिकी मुद्रा के प्रभुत्व को देखते हुए अन्य अंतरराष्ट्रीय मुद्राओं का विदेशी संजय को इस अनुपात में रखना चाहिए कि अन्य देशों के साथ व्यापारिक भुगतान संतुलन से संबंधित समस्याएं न हो।
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