भारत में प्रशासित ब्याज दरें
(Administered Interest Rates in India)
आर्थिक विकास में प्रशासित ब्याज दरों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है जो मुद्रा की आपूर्ति और उसके साख से संबंधित होती है।
कहने का अर्थ है ब्याज दरें अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के मौद्रिक नीति से संबंधित होती हैं जबकि प्रत्यक्ष रूप से आरबीआई इस को प्रभावित करता है।
यह दरें बचतों को प्रभावित करती हैं उसे प्रोत्साहित करती हैं और विनियोग को एक नई दिशा देती हैं जिनसे औद्योगिकरण की प्रक्रिया तेज होती है।
इन दरों के घटने या बढ़ने से मौद्रिक तरलता पर प्रभाव पड़ता है जो अर्थव्यवस्था के मौद्रिक आपूर्ति को समय-समय पर समायोजित करती हैं।
भारत में प्रशासित ब्याज दरों के नियमन के कारण
(Causes of regulated administered rates in India)
मुख्य कारण
*बचत को प्रोत्साहित करना जिससे पूंजी निर्माण के लिए पर्याप्त राशि अर्थव्यवस्था को मिल सके।
* बचत के महत्वपूर्ण हिस्से को प्राथमिक क्षेत्र की ओर प्रवाहित करना जिससे सामुदायिक कल्याण का कार्य किया जा सके।
(प्राथमिक क्षेत्र -कृषि परिवहन लघु उद्योग इत्यादि)
*अर्थव्यवस्था में तरलता को बनाए रखना ।
*मुद्रा के मांग और आपूर्ति के बीच सामंजस्य स्थापित करना ।
*मुद्रास्फीति और विस्फिती जैसे कारणों से अर्थव्यवस्था को बचाना।
गौण कारण
*ऋण दाताओं के मध्य अंतर प्रतिस्पर्धा को कम करना ।
*वाणिज्य बैंकों के ऋण पर दिए जाने वाले ब्याज दरों में स्थिरता लाना।
ब्याज दरों के नियंत्रण के उपकरण
( Instruments for controlling of interest rates)
खुले बाजार की क्रियाएं
इसके अंतर्गत आरबीआई प्रथम श्रेणी के प्रतिभूतियों जो पराया सरकारी प्रतिभूतियां होती हैं जिनके भुगतान के पीछे सरकार की गारंटी होती है को खुले बाजार में क्रय विक्रय करता है जिसका प्रभाव वाणिज्यिक बैंकों की ब्याज दरों पर पड़ता है।
बैंक दर
इस दर से संबंधित ही अन्य ब्याज दरें होती हैं बैंक दर होता है जिस पर आरबीआई द्वारा आने वाणिज्यिक बैंकों को अल्पकालीन ऋण प्रदान किए जाते हैं। बैंक दर मे परिवर्तन से बाजार दरों में भी परिवर्तन होता है।
परिवर्तनशील नकद आरक्षण कोष
बैंक अपने जमा का एक निश्चित भाग आरबीआई के पास रखते हैं आरबीआई द्वारा इसमें समय के साथ-साथ परिवर्तन किए जाते हैं जिससे ब्याज दरों पर प्रभाव पड़ता है।
चयनात्मक साख नियंत्रण
अर्थव्यवस्था के किसी विशेष क्षेत्र में पूंजी निर्माण की दर को कम करने के लिए साख नियंत्रण का प्रयास किया जाता है । इस प्रकार का नियंत्रण चयनित साख नियंत्रण कहलाता है ।पूंजी निर्माण की प्रक्रिया द्वारा उत्पादन प्रभावित होती है जिससे उस क्षेत्र के वस्तुओं की कीमतों पर इसका प्रभाव पड़ता है ।
कर में छूट देकर या करो को बढ़ाकर
सरकारी प्रतिभूतियों में बचतो की विनियोग करने पर करों में छूूट दी जाती है जिससे बचतकर्ता इन प्रतिभूतियों में विनियोग के लिए कुछ प्रोत्साहित होता हैै।
अन्य प्रतिभूतियो में विनियोग करनेेेेेेे पर करारोपण किया जाता है जो उसे हतोत्साहित करता है ।
आर्थिक सुधारों के अंतर्गत आरबीआई द्वारा नियंत्रित ब्याज दरों मे परिवर्तन समय की मांग थी।
बैंकों पर आरबीआई के प्रभुत्व के चलते बैंक के कार्य संचालन में लिए जाने वाले निर्णय पूर्ण तः आरबीआई के प्रभाव में थे।
चक्रवर्ती समिति की अनुशंसा पर ब्याज दरों के विनियमन का प्रयास किया गया ।इसके लिए पहला कदम 1985 में उठाया गया ।
अब तक ब्याज दरों के विनियमन के लिए उठाए गए कदम
*मुद्रा बाजार की दरों को स्वतंत्र बाजार के हवाले कर दिया गया ।
*आरबीआई द्वारा ब्याज दरों की न्यूनतम और उच्चतम सीमा का निर्धारण किया गया जिसके अंतर्गत वाणिज्य बैंक अपनी ब्याज दर निश्चित करें ।
*परिवर्तनशील या गैर परिवर्तनशील ऋण पत्रों पर ब्याज दर का निर्धारण स्वतंत्र छोड़ दिया गया ।
*सावधी ऋणों पर ब्याज निर्धारण स्वतंत्र छोड़ दिया गया।
*बैंक दरों से अन्य दरो को जोड़ दिया गया ।
*जमा प्रमाण, पत्र ट्रेजरी, बिल वाणिज्य पत्र के ब्याज दरों को बाजार -निर्धारित कर दिया गया।
ब्याज दरों के विनियमन की सीमाएं
*ब्याज दरों को पूर्णतः स्वतंत्र नहीं किया गया ।
*आरबीआई द्वारा आंशिक रूप से नियंत्रित होते हुए भी आरबीआई के अधीन कार्यरत वाणिज्यिक बैंकों की ब्याज दरें समान हो जाती है ।
*बैंकों के पास उपायुक्त आधार संरचना की कमी है।
*अल्पकालिन मुद्रा की कमी से अल्पकालिक नितियोंकी कमी होती है जो ब्याज दरों से उत्पन्न होने वाले दबाव को कम कर सके ।
*उच्च स्तरीय कार्य कुशल और तकनीकी विशेषज्ञों की कमी के कारण स्वतंत्र बाजार में व्यवहार करना जोखिम भरा कदम है जो बैंकों के लिए हितकारी नहीं है।
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