औद्योगिकरण के इस युग में उद्योगों को स्थापित करने और व्यवसाय विस्तार के लिए उन्हें आर्थिक सहायता की आवश्यकता होती है । इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पूंजी की व्यवस्था करना उद्योग जगत के लिए कठिन कार्य होता है । पूंजी की अल्पकालीन आवश्यकता की पूर्ति के लिए वह मुद्रा बाजार की सहायता लेते हैं और दीर्घकालीन पूंजी के लिए पूंजी बाजार पर निर्भर करते हैं फिर भी बिना बैंकिंग संस्थाओं के सहयोग के उद्योग जगत अपनी पूंजी की व्यवस्था नहीं कर पाता। इस दृष्टि t से बैंकों की महत्ता काफी बढ़ जाती है इस ब्लॉक में विकास बैंक की चर्चा करेंगे किसी भी देश के आर्थिक विकास में विकास में की महत्वपूर्ण भूमिका होती है इस सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता है।
विकास बैंक क्या होते हैं इसे देखते हैं
विकास बैंक की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है विभिन्न विद्वानों द्वारा इसकी विशेषताओं को ही परिभाषित किया गया है अतः परिभाषा ओं के निष्कर्ष को ही प्रियता दी जाती है जो इस प्रकार है
विकास बैंक ऐसे वित्तीय संस्थान है जो उद्योगों को स्थापित करने के लिए उन्हें व्यवसाय विस्तार के लिए मध्यकालीन और दीर्घकालीन ऋण प्रदान करते हैं ।
यह उद्योगों को सलाहकार के रूप में और अन्य उद्यमी सेवाएं उपलब्ध कराते हैं।
विशेषताएं
*औद्योगिक संस्थाओं के लिए मध्यकालीन एवं दीर्घकालीन ऋण प्रदान करना ।
*आर्थिक विकास हेतु तकनीकी ज्ञान उपलब्ध करना ।
*नए क्षेत्रों में उद्योग लगाने हेतु वित्तीय सहायता उपलब्ध
करना ।
*तकनीकी सहायता उपलब्ध करना ।
*पूंजी बाजार को प्रभावी घटक के रूप में गतिशील नेतृत्व प्रदान करना ।
*वाणिज्यिक बैंकों द्वारा दिए जाने वाले लाभ ऋण प्रदान और उनके संग्रह के बीच के पूरक ऋण उद्योग जगत को प्रदान
करना।
*नए साहसी के सृजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना।
विकास बैंक के कार्य
*यह (gap filler )के रूप में कार्य करते हैं अर्थात जब औद्योगिक संस्थाओं को विशिष्ट या सामान्य स्रोत से वित्त उपलब्ध नहीं होते हैं तो यह बैंक उन्हें वित्त की पूर्ति करते हैं ।
*यह अंशपत्रों और ऋणपत्रों को खरीद कर उनका अभिगोपन करते हैं ।
*इनके वित्त के मुख्य स्रोत केंद्र सरकार, केंद्रीय बैंक और सार्वजनिक संस्थाएं होती हैं ।
*यह उद्योगों में कौशल निर्माण में सहायता करते हैं ।
*टेक्नोलॉजी से संबंधित परामर्श भी देते हैं ।
*सलाहकार के अतिरिक्त यह अन्य उद्यमी सेवाएं उपलब्ध कराते हैं।
भारत में विकास बैंक
1947 में भारत को स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात इसके सामने सबसे बड़ी समस्या पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था थी जिसने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इसे क्षतिग्रस्त कर दिया था और गुलामी के कारण इसकी दशा काफी जर्जर हो चुकी थी। देश के विभाजन से भी अर्थव्यवस्था पंगु हो गई थी। तेजी से औद्योगिकरण में प्रगति करने के लिए और साथ ही साथ उद्योगों के आधुनिकीकरण और पुरानी मशीनों के प्रतिस्थापन की सख्त जरूरत थी। उस समय ऐसी एजेंसियों की आवश्यकता थी जो बड़े पैमाने पर उद्योग के लिए वित्त जुटा सके। इसकी पहल करते हुए भारत सरकार द्वारा 1948 में भारतीय उद्योग वित्त निगम की स्थापना की गई ।फिर 1955 में भारतीय औद्योगिक उधार एवं निगम स्थापित किया गया। इसी प्रकार अन्य संस्थाएं भी स्थापित हुई।
भारत के शीर्ष विकास बैंक और उनकी स्थापना
भारतीय औद्योगिक साख तथा विनियोग निगम 1955
भारतीय औद्योगिक विकास बैंक 1964
भारतीय औद्योगिक विनियोग बैंक 1971
भारतीय औद्योगिक वित्त निगम 1982
भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक 1990
राज्य स्तर पर राज्य वित्त निगम 1951
राज्य औद्योगिक विकास बैंक 1960
इस प्रकार स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर अब तक देश में बहुत से विकास बैंक स्थापित हुए हैं जिनके कारण औद्योगिक विकास में काफी सहायता मिली है। औद्योगिक वित्त संस्थाओं द्वारा उद्योगों को दी जाने वाली स्वीकृति और वितरित राशियों में निरंतर वृद्धि हुई है जो देश के वर्तमान स्वरूप का कारण हैं।
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